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हरित क्रांति

जैविक खेती क्या है, जैविक खेती के फायदे

जैविक खेती क्या है, जैविक खेती के फायदे

भारत कृषि प्रधान देश है यह तथ्य हर कोई जानता है। इतना ही नहीं यहां के नागरिकों की खेती पर निर्भरता भी 80 फ़ीसदी के आसपास है। हरित क्रांति के शुरुआती दौर यानी 1960 से पूर्व यहां परंपरागत और जैविक खेती ही की जाया करती थी लेकिन बढ़ती आबादी और लोगों का पेट भरने के क्रम में रासायनिक खाद और उन्नत किस्मों के बीजों का चलन शुरू हुआ। हम आत्म निर्भर तो हुए, खाद्यान्न के भंडार भरे गए लेकिन खेती किसानी घाटे का सौदा होने लगा। साठ के दशक में 2 किलोग्राम रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग होता था। वह अब 100 किलो तक पहुंच गया है। लागत कई गुना बढ़ गई है और उत्पादन स्थिर हो गया है। प्रधानमंत्री के 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के वादे को पूरा करने में वैज्ञानिकों के भी हाथ पैर फूल रहे हैं। उन्हें कोई बेहतर रास्ता अभी तक समझ नहीं आया है। और फिर लोग जैविक खेती की तरफ लौटने की सलाह देने लगे हैं। इसके कई कारण हैं। बेकार होती जमीन, प्रभावित होती खाद्यान्न की गुणवत्ता, पशु और मानव में बढ़ते अनेक तरह के रोग इसके मुख्य कारण हैं। पर्यावरणीय संकट इससे भी ज्यादा गंभीर है। स्वास्थ्य को लेकर सजग लोगों के लिहाज से जैविक खेती अच्छी आय का जरिया बन रही है।

जैविक और रासायनिक कृषि में क्या अंतर है

कृषि जैविक एवं रासायनिक नहीं होती यह दोनों श्रेणी खेती की होती हैं। रसायनों में जीवन नहीं होता है जबकि जैविक खेती में इस तरह के खादों का प्रयोग किया जाता है जिनमें जीवन होता है। जैविक खेती में जीवाणु आदि होते हैं जोकि जमीन और पौधे दोनों को स्थाई शक्ति प्रदान करते हैं। रसायनों में जीवन नहीं होता है जबकि जिसमें जीवन होता है वह मरता भी है। जैविक खाद गोबर, कचरा, पौधों के पत्तेआदि की सड़ने की लंबी प्रक्रिया के बाद तैयार होते हैं। इनमें फसलों को पोषण देने वाले जीवाणु होते हैं।

रसायन मुक्त खेती

नशा मुक्त खेती को भी लोगों ने अनेक नाम दे दिए हैं। इनमें जैविक खेती, प्राकृतिक खेती, जीरो बजट खेती, टिकाऊ खेती, आवर्तन सील खेती, वैदिक खेती आदि नाम खासी चर्चा में है। जैविक खेती में रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों का प्रयोग नहीं होता ‌। हरी खाद, गोबर की खाद, वर्मी कंपोस्ट, नेपेड कंपोस्ट आदि जैविक खादों का प्रयोग कर इस तरह की खेती की जाती है। जैविक खेती में बाहरी चीजों का प्रयोग बेहद कम किया जाता है। यह किसानों को प्रकृति के करीब लाती है।

जैविक खेती के फायदे

रासायनिक खादों से जहां मृदा, चारा और खाद्यान्न की गुणवत्ता प्रभावित होती है वही जैविक खादों से यह बेतहाशा बढ़ती है। जिन खेतों में जैविक खादों का प्रयोग होता है वहां की जल धारण क्षमता भी बढ़ जाती है और फसलों में पानी भी कम लगाना पड़ता है। जैविक खेती करने से किसानों की लागत 80 फ़ीसदी से और ज्यादा तक कम की जा सकती है।धीरे-धीरे जैविक खेती की ओर आने से फसलों की उत्पादकता और गुणवत्ता दोनों में ही इजाफा होता है। भूमि के जल स्तर में भी यह इजाफा करने का कारण बनती है। निर्यात के लिहाज से भी जैविक उत्पाद जल्दी बेचे जा सकते हैं।

कैसे बनाएं जैविक खाद

जैविक खाद बनाने के लिए पौधों के अवशेष गोबर, जानवरों का बचा हुआ चारा आदि सभी घास फूस को जमीन के नीचे 4 फीट गहरे गड्ढे में डालते रहना चाहिए। इसे जल्दी से लाने के लिए उसे संस्थान दिल्ली एवं जैविक खेती केंद्र गाजियाबाद के डिजाल्वाल्वर साल्यूसन का प्रयोग कर सकते हैं। इसके अलावा बेहद सस्ती कीमत पर सरकारी संस्थानों द्वारा जीवाणु खाद के पैकेट किसानों को दिए जाते हैं। इनमें एजेक्वेक्टर, पीएसबी, राइजोबियम आदि जीवाणु खाद प्रमुख हैं। जीवाणु खादों का प्रयोग होता है कि यह है जमीन में मौजूद नाइट्रोजन फास्फोरस पोटाश आदि तत्वों को अवशोषित कर के पौधों को प्रदान करते हैं। जैविक खेती में किसी तरह के रसायन का प्रयोग नहीं होता। इस तरीके से खेती करने वाले किसान केवल प्राकृतिक चीजों के माध्यम से कीट फफूंद आदि को खत्म करते हैं। इससे फसल पोषण युक्त और शादी युक्त पैदा होती है। किसी भी खेत में जैविकखेती करने के लिए कम से कम 2 से 3 साल का समय लगता है। धीरे-धीरे रसायनों का प्रयोग बंद किया जाता है और कार्बनिक खादों का प्रयोग शुरू किया जाता है। आज भारत में जैविक खाद्य उत्पादों का कारोबार तेजी से गति पकड़ रहा है और इनकी बेहद डिमांड है।
हरित क्रांति के बाद भारत बना दुनियां का दूसरा सबसे बड़ा गेहूं उत्पादक

हरित क्रांति के बाद भारत बना दुनियां का दूसरा सबसे बड़ा गेहूं उत्पादक

नई दिल्ली। हरित क्रांति के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा गेहूं उत्पादक देश बना है। वित्तीय वर्ष 2021-22 में भारत ने 1068.4 लाख टन गेहूं का उत्पादन किया है, जो वर्ष 1960 के मुकाबले 1000 फीसदी अधिक है। हरित क्रांति से ही भारत को कृषि के क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त हुई थी। हरित क्रांति की बदौलत ही भारत अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर बना और पिछले छः दशकों से भारत दुनियां का दूसरा सबसे बड़ा गेहूं उत्पादक देश बन गया है। साल 1960 की हरित क्रांति के बाद भारत ने गेहूं उत्पादन में करीब 1000 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज कराई है।

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केन्द्र सरकार के डाटा चार्ट के अनुसार साल 1960 की शुरुआत में भारत 98.5 लाख टन गेहूं का उत्पादन करता था। लेकिन हरित क्रांति के बाद भारत लगातार गेहूं का उत्पादन बढ़ाता गया और आज गेहूं उत्पादन में भारत का विश्व में दूसरा स्थान है। आज भारत 1068.4 लाख टन गेहूं का उत्पादन कर रहा है।


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भारत पिछले वित्तीय वर्ष के दौरान रिकॉर्ड 70 लाख टन अनाज का निर्यात कर चुका है। आज अनाज की कुल पैदावार प्रति हेक्टेयर के हिसाब से तीन गुना बढ़ गई है। 1960 के मध्य में प्रति हेक्टेयर 757 किलोग्राम की पैदावार हुआ करती थी, जो वित्तीय वर्ष 2021 में 2.39 टन हो गई है। 

अनाज के रिकॉर्ड उत्पादन की उम्मीद

वित्तीय वर्ष 2021-22 में गेहूं का उत्पादन बढ़ना तय है। इस साल भी भारत में गेहूं के रिकॉर्ड उत्पादन की उम्मीद जताई जा रही है। गेहूं उत्पादन में भारत को लगातार ख्याति मिल रही है, जो कृषि क्षेत्र के लिए अच्छे संकेत हैं।

Natural Farming: प्राकृतिक खेती के लिए ये है मोदी सरकार का प्लान

Natural Farming: प्राकृतिक खेती के लिए ये है मोदी सरकार का प्लान

ग्राम प्रधानों के लिए आयोजित होंगे सत्र 15 लाख किसान को मिलेगी खास ट्रेनिंग 20 लाख नेशनल फील्ड स्कूल खोले जाएंगे

हरित क्रांति के लिए अपनाए गए रासायनिक खेती के उपायों से पर्यावरण पर पड़ रहे कुप्रभाव को रोकने के लिए भारत सरकार ने नैचुरल फार्मिंग (Natural Farming) यानी  
प्राकृतिक खेती की दिशा में कदम बढ़ाया है। परंपरागत खेती करने वाले भारत के किसानों के बीच हरित क्रांति मिशन के तहत गेहूं और धान की अधिक से अधिक पैदावार हासिल करने की होड़ के कारण भारतीय कृषि के पारंपरिक मूल्यों की भी जमकर अनदेखी हुई। नतीजतन, भारत के किसान बाजरा, ज्वार, कोदू, कुटकी, मोटे चावल जैसी फसलों के प्रति उदासीन होते गए।

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पिछले कई दशकों से भारत के किसानों का रुझान धान और गेहूं की फसलों पर केंद्रित होने से खेतों की उर्वरता भी प्रभावित हुई है। खेत में सालों से लगातार एक ही तरह के रसायनों के प्रयोग के कारण मृदा शक्ति में कमी आई है। धान की फसल के कारण कई प्रदेशों के भूजल स्तर में भी गिरावट दर्ज की गई है।

केंद्रीय मंत्री आशान्वित

भारत के केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने प्राकृतिक कृषि (Natural Farming) की मदद से भारतीय कृषि जगत को नई ऊंचाइयां मिलने के साथ ही मृदा संरक्षण में भी मदद प्राप्त होने की आशा व्यक्त की है। केंद्रीय कृषि मंत्री तोमर के मुताबिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय कृषि जगत के विकास के लिए कृत संकल्पित हैं। पीएम मोदी ने किसानों को हमेशा प्रेरित किया है। कृषि मंत्री तोमर ने किसानों से कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक पद्धति को अमल में लाकर परंपरागत प्राकृतिक खेती से होने वाले लाभों को प्राप्त करने की अपील की है। उन्होंने बताया कि, कृषि एवं कृषक हित में सरकार ने प्राकृतिक खेती के लिए एक अभियान शुरू किया है, इससे जुड़कर किसान भारतीय कृषि को नई पहचान दे सकते हैं।

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कृषि मंत्री तोमर के मुताबिक, आजादी का अमृत महोत्सव मनाते समय कृषि क्षेत्र के विकास के लिए सरकार की योजनाओं की चर्चा होना स्वाभाविक एवं जरूरी है। भारत विश्व का एक मात्र ऐसा देश है जहां की लगभग तीन चौथाई आबादी कृषि और इससे संबद्ध व्यवस्था से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर जुड़ी हुई है। भारत की अर्थव्यवस्था में भी कृषि का अति महत्वपूर्ण योगदान है। कृषि से खाद्यान्न और कच्ची सामग्री के साथ ही भारत के बड़े बेरोजगार वर्ग को रोजगार भी मिलता है। केंद्रीय कृषि मंत्री के मुताबिक, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते आठ साल में किसान एवं किसानी हित से जुड़ी अहम समस्याओं पर गंभीर चिंतन कर उनके समाधान की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किए हैं। कृषि मंत्री के अनुसार प्रत्येक बजट में अब एग्रीकल्चर सेक्टर के विकास के लिए पर्याप्त राशि का आवंटन किया जा रहा है। उन्होंने कृषि से जुड़ी कई लाभकारी योजनाओं का भी जिक्र किया। कृषि मंत्री तोमर ने उम्मीद जताई है कि, हरियाणा, गुजरात आंध्रप्रदेश और हिमाचल सहित कुछ राज्यों के किसानों की ही तरह अन्य राज्यों, जिलों एवं ग्रामों के अधिक से अधिक किसान भी अब प्राकृतिक खेती का विकल्प अपनाएंगे। प्राकृतिक तरीके से खेती करने के लाभों के बारे में किसानों को सरकारी स्तर पर जागरूक किया जा रहा है।

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प्राकृतिक खेती के लाभ

केंद्रीय कृषि मंत्री ने बताया कि, प्राकृतिक खेती किसानी का सुगम तरीका है। अल्प लागत की यह किसानी तरकीब किसानों की आय बढ़ाने में मददगार साबित हुई है। मृदा संरक्षण में भी प्राकृतिक खेती की उपयोगिता सर्वविदित है। गौरतलब है कि, पिछले साल गुजरात में आयोजित एक सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के किसानों से भारत की धरा को रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक के छिड़काव से मुक्त कराने के लिए किसानों से सहयोग की अपील की थी।

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गंभीर हैं पीएम

प्रधानमंत्री केमिकल और फर्टिलाइजर आधारित आधुनिक किसानी से मानव स्वास्थ्य पर पड़ रहे प्रतिकूल प्रभावों से चिंतित नजर आते हैं। पीएम मोदी का मानना है कि, प्राकृतिक खेती से देश के उन 80 प्रतिशत किसानों को भी लाभ मिल सकेगा, जिनके पास दो हेक्टेयर से भी कम जमीन है। पीएम हरित क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली केमिकल और फर्टिलाइजर आधारित किसानी विधि पर चिंता जता चुके हैं। इस पद्धति से मनुष्य के स्वास्थ्य पर पड़ रहे हानिकारक प्रभावों के कारण उन्होंने खेती के अन्य विकल्पों पर गंभीरता से योजना बनाने कृषि वैज्ञानिकों, सलाहकारों को निर्देशित किया है।

प्राकृतिक खेती का बढ़ता दायरा

केंद्र सरकार के प्रयासों से परंपरागत कृषि विकास योजना की उपयोजना के तहत चार लाख हेक्टेयर भूमि क्षेत्र को प्राकृतिक खेती के दायरे में शामिल कर लिया गया है।

जापान से जुड़ी अवधारणा

पेड़, पौधों का विकास वैसे तो प्राकृ़तिक रूप से सतत एवं दीर्घकालीन प्राकृतिक प्रक्रिया है, जो धरती के विकास के साथ सतत जारी है। हालांकि इन प्राकृतिक तरीकों को पहचान कर जापान के किसान दार्शनिक मासानोबू फुकुओका (Masanobu Fukuoka)ने प्राकृतिक खेती की अवधारणा विकसित की है। उन्होंने साल 1975 में अपने शोध ग्रंथ में प्राकृतिक खेती के तरीकों पर विस्तार से प्रकाश डाला था। पद्मश्री से सुशोभित विदर्भ क्षेत्र में अमरावती के किसान सुभाष पालेकर ने 1990 के दशक में अपने खेत पर प्राकृतिक खेती का प्रयोग किया था। इस दौर में भयावह सूखे का सामना करने वाले विदर्भ क्षेत्र में पालेकर को प्राकृतिक खेती से कई लाभकारी परिणाम भी मिले थे।

पानी की बचत ही बचत

प्राकृतिक खेती का सबसे ज्यादा लाभ पानी की बचत का होगा। फसल की सिंचाई के लिए पानी की कमी का सामना करने वाले किसानों के लिए प्राकृतिक खेती एक तरह से फायदे का सौदा है। नैचुरल फार्मिंग विधि में खेत पर पौधों को पानी की नहीं बल्कि नमी की जरूरत होती है। इस प्रणाली से किसानी करने वाले किसान को पहली दफा इस रीति से किसानी करने पर प्रथम वर्ष 50 फीसदी तक पानी की बचत हो जाती है। अध्ययन के मुताबिक इस बचत में साल दर साल वृद्धि होती जाती है। पहले साल हुई 50 प्रतिशत पानी की बचत बढ़कर तीसरे साल के दौरान 70 फीसदी तक दर्ज की गई है। इतना ही नहीं बल्कि प्राकृतिक खेती की मदद से किसान एक साल में तीन फसलें भी खेत पर उगा सकता है।

सरकारी प्रोत्साहन योजनाएं

एनडीए गवर्नमेंट ने भारतीय कृषि व्यवस्था में सुधार के लिए व्यापक कदम उठाए हैं। किसानों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए भी सरकार कई सुविधाएं जारी कर रही है।

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किसान सम्मान निधि, फसल बीमा योजना और न्यूनतम समर्थन मूल्य वृद्धि आदि वह निर्णय हैं जिससे सरकार कृषि एवं कृषक हित को साधने प्रयासरत है।

इतना लक्ष्य निर्धारित

केंद्र सरकार ने भारत में कुल 75,000 हेक्टेयर भूमि को प्राकृतिक विधि की खेती के दायरे में लाने का लक्ष्य निर्धारित किया है।

लक्ष्य साधने जतन

किसानों हेतु प्राकृतिक विधि से खेती करने के लिए सरकार ने व्यापक योजना बनाई है। इसके तहत देश के 15 लाख किसानों को नैचुरल फार्मिंग के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा। नैचुरल फार्मिंग (Natural Farming) यानी प्राकृतिक खेती के प्रशिक्षण के लिए देश में 20 लाख नेशनल फील्ड स्कूल खोलने की दिशा में द्रुत गति से कार्य जारी है।

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नैचुरल फार्मिंग अपनाने के लिए देश के 30 हजार ग्राम प्रधानों के लिए 750 प्रशिक्षण सत्रों के आयोजन का भी लक्ष्य निर्धारित किया गया है। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने किसानों से अपील की है कि, वे प्राकृतिक खेती (Natural Farming) मिशन में सहयोग प्रदान कर भारतीय कृषि जगत को नई ऊंचाई और आयाम प्रदान करें।
दलहनी फसलों पर छत्तीसढ़ में आज से होगा अनुसंधान

दलहनी फसलों पर छत्तीसढ़ में आज से होगा अनुसंधान

विकास के लिए रायपुर में आज से जुटेंगे, देश भर के सौ से अधिक कृषि वैज्ञानिक

रायपुर। छत्तीसगढ़ में वर्तमान समय में लगभग 11 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में दलहनी फसलें ली जा रहीं है, जिनमें अरहर, चना, मूंग, उड़द, मसूर, कुल्थी, तिवड़ा, राजमा एवं मटर प्रमुख हैं। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर में दलहनी फसलों पर अनुसंधान एवं प्रसार कार्य हेतु तीन
अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजनाएं - मुलार्प फसलें (मूंग, उड़द, मसूर, तिवड़ा, राजमा, मटर), चना एवं अरहर संचालित की जा रहीं है जिसके तहत नवीन उन्नत किस्मों के विकास, उत्पादन तकनीक एवं कृषकों के खतों पर अग्रिम पंक्ति प्रदर्शन का कार्य किया जा रहा है। विश्वविद्यालय द्वारा अब तक विभिन्न दलहनी फसलों की उन्नतशील एवं रोगरोधी कुल 25 किस्मों का विकास किया जा चुका है, जिनमें मूंग की 2, उड़द की 1, अरहर की 3, कुल्थी की 6, लोबिया की 1, चना की 5, मटर की 4, तिवड़ा की 2 एवं मसूर की 1 किस्में प्रमुख हैं।


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छत्तीसगढ़ राज्य गठन के उपरान्त पिछले 20 वर्षों में प्रदेश में दलहनी फसलों के रकबे में 26 प्रतिशत, उत्पादन में 53.6 प्रतिशत तथा उत्पादकता में 18.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसके बावजूद प्रदेश में दलहनी फसलों के विस्तार एवं विकास की असीम संभावनाएं हैं। इसी के तहत देश में दलहनी फसलों के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए अनुसंधान एवं विकास हेतु कार्य योजना एवं रणनीति तैयार करने, देश के विभिन्न राज्यों के 100 से अधिक दलहन वैज्ञानिक, 17 एवं 18 अगस्त को कृषि विश्वविद्यालय रायपुर में जुटेंगे। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के सहयोग से यहां दो दिवसीय रबी दलहन कार्यशाला एवं वार्षिक समूह बैठक का आयोजन किया जा रहा है। कृषि महाविद्यालय रायपुर के सभागृह में आयोजित इस कार्यशाला का शुभारंभ प्रदेश के कृषि मंत्री रविन्द्र चौबे करेंगे। शुभारंभ समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रदेश के कृषि उत्पादन आयुक्त डॉ. कमलप्रीत सिंह, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के उप महानिदेशक डॉ. टी.आर. शर्मा, सहायक महानिदेशक डॉ. संजीव शर्मा, भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर के निदेशक डॉ. बंसा सिंह तथा भारतीय धान अनुसंधान संस्थान हैदराबाद के निदेशक डॉ. आर.एम. सुंदरम भी उपस्थित रहेंगे। समारोह की अध्यक्षता इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. गिरीश चंदेल करेंगे। इस दो दिवसीय रबी दलहन कार्यशाला में चना, मूंग, उड़द, मसूर, तिवड़ा, राजमा एवं मटर का उत्पादन बढ़ाने हेतु नवीन उन्नत किस्मों के विकास एवं अनुसंधान पर विचार-मंथन किया जाएगा।


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भारत आज मांग से ज्यादा कर रहा अनाज का उत्पादन

उल्लेखनीय है कि भारत में हरित क्रांति अभियान के उपरान्त देश ने अनाज उत्पादन के क्षेत्र में आत्म निर्भरता हासिल कर ली है और आज हम मांग से ज्यादा अनाज का उत्पादन कर रहे हैं। लेकिन, आज भी हमारा देश दलहन एवं तिलहन फसलों के उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर नहीं बन सका है और इन फसलों का विदेशों से बड़ी मात्रा में आयात करना पड़ता हैै। वर्ष 2021-22 में भारत ने लगभग 27 लाख मीट्रिक टन दलहनी फसलों का आयात किया है। देश को दालों के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने के लगातार प्रयास किये जा रहें हैं। केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वारा किसानों को दलहनी फसलें उगाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। वैसे तो भारत विश्व का प्रमुख दलहन उत्पादक देश है और देश के 37 प्रतिशत कृषि क्षेत्र में दलहनी फसलों की खेती की जाती है। विश्व के कुल दलहन उत्पादन का एक चौथाई उत्पादन भारत में होता है, लेकिन खपत अधिक होने के कारण प्रतिवर्ष लाखों टन दलहनी फसलों का आयात करना पड़ता है।

यह समन्वयक करेंगे चर्चा

इस दो दिवसीय कार्यशाला में इन संभावनाओं को तलाशने तथा उन्हें मूर्त रूप देने का कार्य किया जाएगा। कार्यशाला में अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना चना के परियोजना समन्वयक डॉ. जी.पी. दीक्षित, अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना मुलार्प के परियोजना समन्वयक डॉ. आई.पी. सिंह, सहित देश में संचालित 60 अनुसंधान केन्द्रों के कृषि वैज्ञानिक शामिल होंगे।
भारत में हरित क्रांति (Green Revolution) कब और किसने शुरू की थी

भारत में हरित क्रांति (Green Revolution) कब और किसने शुरू की थी

हरित क्रांति का मतलब बेहतरीन उपज देने वाले किस्म के बीजों (High Yealding Veriaty seeds), कीटनाशकों और बेहतर प्रबंधन तकनीकों के इस्तेमाल से फसल उत्पादन में इजाफा से है। नॉर्मन बोरलॉग को 'हरित क्रांति का जनक' मतलब कि (Father of Green Revolution) माना जाता है। उनको ज्यादा उपज देने वाले बीजों के विकास पर उनके काम के लिए नोबेल शांति पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। भारत में हरित क्रांति 1967-68 और 1977-78 में हुई थी। एम. एस. स्वामीनाथन "भारत में हरित क्रांति के जनक" (Father of Green Revolution in India) हैं। हरित क्रांति का आंदोलन एक बड़ी सफलता थी और इसने देश की खाद्य-कमी वाली अर्थव्यवस्था को दुनिया के विकसित कृषि देशों में से एक में बदल दिया। यह 1967 में शुरू हुआ और 1978 तक चला।

भारत में हरित क्रांति का जनक किसे कहा जाता है

हरित क्रांति से पहले भारत को खाद्य उत्पादन में बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। जैसे कि 1964-65 और 1965-66 में भारत ने दो प्रचंड अकालों यानी सूखे का सामना किया जिसकी वजह से भोजन का अभाव हो गया। सीमांत किसानों को सरकार और बैंकों से किफायती दरों पर पैसा और कर्ज मिलना बहुत मुश्किल था। भारत की ट्रेडिशनल फार्मिंग (Traditional Farming) तरीकों की वजह से जरूरत से भी कम खाद्य उपज मिलती थी।

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एम.एस. स्वामीनाथन को भारत में हरित क्रांति के जनक के रूप में भी जाना जाता है। उन्होंने उच्च उपज वाले गेंहू और चावल आदि कई बीजों के विकास में योगदान दिया है, जिससे भारत को खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में मदद मिली है।

हरित क्रांति से इन उद्योगों का हुआ विकास

भारत खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भरता हांसिल कर सकता है और खाद्य निर्यातक के रूप में भी आगे बढ़ सकता है। खाद्य उत्पादों की कमी वाले क्षेत्रों में भंडारण एवं विपणन सुविधाओं की उन्नति के साथ भोजन मिल सकता है। पी.डी.एस. प्रणाली ने गरीब कमजोर लोगों के बीच भूख को कम किया। हरित क्रांति ने भरपूर फसल पैदावार सहित किसान की आमदनी में इजाफा किया है। हरित क्रांति ने कृषि आधारित उद्योगों जैसे कि बीज कंपनियों, उर्वरक उद्योगों, कीटनाशक उद्योगों, ऑटो और ट्रैक्टर उद्योगों आदि का विकास किया।

हरित क्रांति से हुए फायदे और नुकसान

ग्रीन रेव्यूलूशन यानी हरित क्रांति के प्रमुख फायदे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी, खाद्य उत्पादन में वृद्धि और खाद्य उत्पादों की लागत में कमी शामिल है। इसके विपरीत हरित क्रांति से होने वाले नुकसान में वनों की कटाई, कीटनाशकों के वजह से स्वास्थ्य समस्याएं, मृदा और पोषक तत्वों की कमी आदि शामिल हैं।
'हरित क्रांति' के जनक भारत के महान कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन का हुआ स्वर्गवास

'हरित क्रांति' के जनक भारत के महान कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन का हुआ स्वर्गवास

भारत में हरित क्रांति के जनक एम.एस. स्वामीनाथन जी का स्वर्गवास 28 सितंबर, 2023 को सुबह 11.20 बजे चेन्नई में हो गया है। अपने पिता से प्रेरित होकर इन्होंने कृषि जगत में बहुत सारे अहम योगदान दिए। प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक एवं देश की 'हरित क्रांति' के जनक, एमएस स्वामीनाथन के नाम से विख्यात मनकोम्बु संबाशिवन स्वामीनाथन का 28 सितंबर, 2023 को सुबह 11.20 बजे चेन्नई में उनके आवास पर निधन हो गया। निधन के समय स्वामीनाथन की आयु 98 वर्ष थी। उनकी तीन बेटियां हैं - सौम्या स्वामीनाथन, मधुरा स्वामीनाथन और नित्या राव. उनकी पत्नी मीना स्वामीनाथन की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी।

डॉ स्वामीनाथन किससे प्रभावित होकर कृषि क्षेत्र में आने को प्रेरित हुए

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि 7 अगस्त, 1925 को कुंभकोणम में एक सर्जन एमके संबासिवन और पार्वती थंगम्मल के घर जन्मे स्वामीनाथन ने अपनी स्कूली शिक्षा वहीं की थी। कृषि विज्ञान में गहरी दिलचस्पी रखने वाले स्वामीनाथन को स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदार रहे उनके पिता एवं महात्मा गांधी के प्रभाव ने उन्हें इस क्षेत्र में उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित किया। परंतु, इससे पूर्व वह पुलिस विभाग में नौकरी के लिए भी कार्यरत थे, जिसके लिए उन्होंने 1940 के दशक के अंत में योग्यता हांसिल की। स्वामीनाथन ने दो स्नातक डिग्रियाँ हांसिल कर लीं थीं, जिनमें से एक कृषि महाविद्यालय, कोयंबटूर (अब, तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय) से की थी।

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डॉ. स्वामीनाथन ने हरित क्रांति की प्रमुख फसलों पर विशेष कार्य किया

डॉ. स्वामीनाथन ने 'हरित क्रांति' की सफलता के लिए दो केंद्रीय कृषि मंत्रियों, सी. सुब्रमण्यम (1964-67) और जगजीवन राम (1967-70 और 1974-77) के साथ मिलकर कार्य किया था, जिसके चलते उन्होंने भारत में कई कृषि उपलब्धियों को कार्यान्वित करने की दिशा में कार्य किया। इन्होंने रासायनिक-जैविक प्रौद्योगिकी के अत्यधिक उत्पादन के जरिए गेहूं और चावल की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी की दिशा में प्रयास किया। प्रसिद्ध अमेरिकी कृषि वैज्ञानिक और 1970 के नोबेल पुरस्कार विजेता नॉर्मन बोरलाग की गेहूं पर खोज ने इस संबंध में एक बड़ी भूमिका निभाई थी।